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हमारे घर के सामने जो मेन रोड है, उस के बगल में, मतलब दांहिनी ओर कुछ जगह छूटी हुई थी. वहीं एक पीपल का पेड़ भी था. जगह अच्छी खासी थी. अक्सर छोले-कुल्चे वाला वहां अपनी रेहड़ी लगा लेता, और इस प्रकार अपनी जीविकोपार्जन का उपाय करता. कभी कभी कुछ थके हारे, ओर बूढ़े पुराने लोग भी वहां बैठकर अपनी थकान का निराकरण करते. कभी कभी बच्चे भी वहां धमाचौकड़ी मचाते. कुछ धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को अक्सर वहां चावल दाल चढ़ाते हुए भी मैंने कई बार देखा. शनिवार ओर मंगलवार के दिन वहां शनि देव महाराज और महावीर बब्बा हनुमान जी की पुरानी तस्वीर रखे एक बूढ़ी अम्मा बैठी रहती थीं, जो हर आने जाने वाले से कुछ पैसे भगवान् की सेवा में अर्पण करने की गुज़ारिश करती रहती थीं. कहने का मतलब उस थोड़ी सी जगह में पीपल के पेड़ के आस पास बहुत सारी ज़िंदगियाँ उम्मीद की तलाश में उमड़ आती थी,. पीपल का पेड़ वास्तव में उम्मीदों का पेड़ बन चुका था. पर इन उम्मीदों में धार्मिक उम्मीदें सब से ज़्यादा थीं. शनिवार मंगलवार या फिर बाकी दिनों में भी लोगों की श्रद्धा उस जगह को कभी अकेला नहीं छोडती थी…यूं भी धर्म इंसानों को कुछ ज़्यादा ही उद्वेलित करता है. तो एक सज्जन ने लोगों की भावनाओं की कद्र करते हुए, पुलिस को मुहमांगी रकम देकर वहां एक मंदिर बनवा दिया. मंदिर भी बनवाया तो शनिदेव महाराज का. नीति के देवता,न्याय के aadi dev जिनकी कृपा और अकृपा दोनों ही से बड़े बड़े पंडित घबराते हैं.पौराणिक सन्दर्भ के अनुसार एक बार शंकर भगवान् को शनि देव की दृष्टि के प्रभाव से हाथी के रूप में एक लम्बा समय जंगल में बिताना पड़ा था और ये तो कुछ भी नहीं एक बार पार्वती माँ के ललना को देख लिया तो उनकी गर्दन ही कट गयी और माँ को अपने ललना के कन्धों पर न चाहते हुए भी हाथी का सर लगवाना पड़ा, कहने का मतलब जब खुद भगवान् उनकी वक्र दृष्टि का शिकार होने से नहीं बच सके तो फिर हम तो निरे इंसान ठहरे. उनसे पंगा लेना हिंदुयों के बूते की बात तो नहीं है. जो भी हो, मंदिर का भक्तों ने हार्दिक अभिनन्दन किया, कुछ जन्मजात नास्तिकों ने अपनी किताब ओर पेंसिलों की ओर देखकर ज़रूर नाक भौं सिकोड़ी, पर उस सिकुड़न को कब तरजीह मिली है जो अब मिलेगी, ख़ैर…… एक बात और वो अम्मा भी अब नज़र नहीं आती जो हर शनिवार मंगल वार को बाल्टी में भगवान् को बिठाए चढ़ावे की आस में नीम के पेड़ के नीचे बैठी रहती थीं, शायद भगवान् को बाल्टी में बैठना रास नहीं आया तबी बाल्टी को छोड़ मंदिर में स्थापित हो गए…..अब कुछ मंदिर के अन्दर की बात हो जाये.
तो जैसा कि विदित ही है, मंदिर शनि महाराज का है, पर हनुमान जी और unke saath baakee देवी देवता भी वहां विराजमान हैं. मतलब भक्तों की भावनाओं का उन महाशय ने पूरा ध्यान रखा है, भक्त भी यथासंभव चढ़ावा चढ़ा कर मंदिर के निर्माता को कृतकृत्य करते हैं…. मंदिर की सबसे ख़ास बात यह है कि मात्र १५ दिनों में ही ये सिद्ध भी हो गया है. सिद्ध शनिदेव मंदिर के नाम से मंदिर पर लगा बोर्ड जहां एक ओर अपने नए होने को ख़ारिज करता है, वहीं भक्तों के सामने उनकी मनोकामनाएं पूर्ण करने का विज्ञापन भी करता है. बोर्ड पर केवल एक अभाव खटकता है कि उसपर प्राचीन नहीं लिखा है, किन्तु आशा है कि जिस प्रकार मंदिर जन्मजात सिद्ध हो गया है, उसी प्रकार अगले कुछ एक महीनों में प्राचीन भी हो जाएगा. एक बात तो है कि मंदिर सच में बहुत सिद्ध है. अब देखिये न मंदिर के निर्माता को फ्रीफंड में ज़मीन मिल गयी, पान और तम्बाकू के खर्चे से ज़्यादा कमाई हो जाती है, घर के खर्च पर भी लगाम लगी है, सुना है कि जिसने मंदिर बनवाया है, उसी के परिवार के कोई वृद्ध जन वहां पुजारी की भूमिका निभाते है. भारत में धार्मिकों की तो कमी है नहीं, रोज़ करीब १०-१५ लोग तो वहां आते ही है, ज़्यादा भी आते होंगे, और कुछ न कुछ मुद्रा तो अवश्य ही चढाते होंगे, इस प्रकार पुजारी जी के पान तम्बाकू का खर्चा भी बड़े आराम से निकल आता hai. बिना लागत के ज़मीन भी अपनी हो गयी है, और मंदिर तोड़ने की हिम्मत धार्मिकों में तो कहाँ से आएगी अधार्मिकों में भी नहीं है. वजह जो भी हो मंदिर तोड़ने और इस तरह साम्प्रदायिकता फैलाने के जुर्म में कौन बुध्धिमान मरना चाहेगा…. इसलिए ग़लत तरीके से मंदिर बना तो बनने दीजिये. यही भारतीय परंपरा है. अब आलम यह है कि प्रतिदिन वहां फ़िल्मी गानों कि तर्ज पर भजन होते हैं, भक्त अपने गले कि पूरी ताकत से भगवान् की नींद में खलल डालते हैं, फिर माया मोह में फंसे बुद्धिजीविओं की किसे परवाह है, और भगवान् भी न जाने कैसी नींद में सो रहे हैं, जागते ही नहीं, भगवान् यदि जाग जाएँ तो मैं अपने लिए कुछ नहीं चाहती मगर यह ज़रूर चाहती हूँ, कि वो अपने भक्तों का वियोग दूर करें, उन्हें अपनी अमर ज्योति का अंग बना ले,
वैसे भारत में भक्तों की कमी नहीं है, युवा बेरोजगार भी भगवान् के भक्त हैं, अक्सर ही गली-नुक्कड़ पर साईं बाबा, या देवी माता, की प्रतिमा प्रतिष्ठित कर फ़िल्मी गानों कि तर्ज पर उछल्कून्द मचा कर भगवान् की कृपा से पॉकिट मनी का जुगाड़ करते हैं, अच्छा लगता है ये सब देख कर कि भगवान् अपने बच्चों को रोज़गार भी दे रहे हैं, ……………..कबीर के भजन की उस पंक्ति का अर्थ अब कुछ कुछ समझ में आने लगा है…….
माया महा ठगिनी हम जानी तिरगुन फांस लिए कर डोले, बोले मधुरी बानी ……………………..
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